नैनीताल। शीशमहल काठगोदाम में नन्ही बच्ची के साथ दुराचार और जघन्य हत्या के मामले में निचली अदालत और उत्तराखण्ड हाईकोर्ट से मिली फांसी की सजा को सर्वोच्च न्यायालय ने साक्ष्यों के अभाव में रद्द कर दिया। अदालत ने दोनों आरोपियों को सभी आरोपों से बरी करते हुए कहा कि संदेहास्पद और अपूर्ण साक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि नहीं दी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता ने अभियुक्त अख्तर अली उर्फ अली अख्तर उर्फ शमीम उर्फ राजा उस्ताद और सहअभियुक्त प्रेमपाल वर्मा को दोषमुक्त कर तत्काल रिहाई का आदेश दिया।
मामला 20 नवम्बर 2014 का है, जब हल्द्वानी के शीशमहल, काठगोदाम क्षेत्र से विवाह समारोह में शामिल एक नाबालिग लड़की लापता हो गई थी। चार दिन बाद उसका शव गौला नदी के किनारे जंगल में मिला। पोस्टमॉर्टम में यौन शोषण, गंभीर चोटें और अत्यधिक रक्तस्राव से मौत की पुष्टि हुई।
सत्र न्यायालय ने 2016 में अख्तर अली को धारा 376ए, 302, 201 आईपीसी और पॉक्सो अधिनियम के तहत दोषी ठहराकर मृत्युदंड सुनाया था, जबकि प्रेमपाल को धारा 212 आईपीसी में सजा दी गई थी। 2019 में उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने इस फैसले को बरकरार रखा।
सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष की जांच, डीएनए रिपोर्ट, बरामदगी और “चेन ऑफ कस्टडी” में खामियां पाई और कहा कि मृत्युदंड जैसे कठोर दंड के लिए साक्ष्य पूरी तरह स्पष्ट और निर्विवाद होने चाहिए। अदालत ने स्पष्ट किया कि जब तक अभियोजन संदेह से परे दोष साबित न करे, तब तक दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती।

