भाजपा की ‘ऐतिहासिक जीत’ के पीछे परिवारवाद की करारी हार!, अपनों को टिकट देकर खुद को किया बेनकाब

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पंचायत चुनाव में जनता ने भाजपा के चेहरे पर लगा ‘परिवारवाद विरोधी’ मुखौटा नोच फेंका

हल्द्वानी। उत्तराखंड के पंचायत चुनाव में भाजपा भले ही सीटों के आंकड़ों के आधार पर खुद को विजेता घोषित कर रही हो, लेकिन असली तस्वीर इससे कहीं ज्यादा चुभने वाली है। जीत के शोर में छिपा एक सच यह है कि भाजपा खुद उसी परिवारवाद में गले तक डूबी नजर आई, जिसे लेकर वह बरसों से कांग्रेस पर हमले करती रही है।

‘सबका साथ’ की बात करने वाली पार्टी, अपनों को देती रही टिकट!

नैनीताल विधायक सरिता आर्या के बेटे रोहित आर्या, सल्ट विधायक महेश जीना के बेटे करन, बदरीनाथ के पूर्व विधायक की पत्नी रजनी भंडारी, लोहाघाट के पूरन सिंह फर्त्याल की बेटी, लैंसडौन विधायक दिलीप रावत की पत्नी और भीमताल विधायक की बहू तक—भाजपा ने हर ओर अपने नेताओं के रिश्तेदारों को चुनावी मैदान में उतारा। लेकिन जनता ने साफ कर दिया—“भाजपा की कथनी और करनी में फर्क है।”

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वोट नहीं मिले, क्योंकि जनता ने भाजपा की दोहरी नीति पकड़ ली!

भाजपा ने जब-जब ‘अपने’ मैदान में उतारे, मतदाताओं ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। यह हार महज़ कुछ लोगों की नहीं, बल्कि भाजपा की उस सोच की है, जिसमें ‘परिवारवाद विरोध’ सिर्फ भाषणों तक सीमित है। कार्यकर्ताओं की मेहनत और काबिल उम्मीदवारों को नजरअंदाज कर घर के लोगों को थाली में परोसकर टिकट देना ही इस हार का कारण बना।

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‘ऐतिहासिक जीत’ का दावा महज़ आंकाड़ों का खेल

प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट इसे भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी पंचायत जीत बता रहे हैं, लेकिन असलियत यह है कि सीटें भले बढ़ीं हों, पर नैतिक धरातल पर पार्टी बुरी तरह हार गई है। सवाल उठ रहा है कि भाजपा क्या अब खुद को ‘नेतावादी’ और ‘परिवारवादी’ पार्टी के रूप में स्थापित करने पर तुली है?

संगठन का गला घोंटकर रिश्तेदारों को बैठाना, क्या यही है भाजपा की नई पहचान?

पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता, जिन्होंने ज़मीन पर वर्षों मेहनत की, आज सवाल पूछ रहे हैं—“क्या हमारे संघर्ष से मिलने वाली सीटें किसी नेता के बेटे-बेटी के लिए आरक्षित थीं?” भाजपा का ये व्यवहार न केवल लोकतंत्र के साथ छल है, बल्कि खुद के उस मूल सिद्धांत की हत्या है, जिसे लेकर पार्टी बनी थी।

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अब जनता का संदेश स्पष्ट
भाजपा कांग्रेस पर जितना भी परिवारवाद का प्रहार करे, खुद जब वही राह अपनाएगी, तो जनता उसे भी माफ नहीं करेगी।सत्ता की भूख में अगर भाजपा भी ‘परिवारवाद की दुकान’ चलाएगी, तो अंजाम वही होगा जो इन चुनावों में उसके अपनों का हुआ—नकार और शर्मिंदगी।

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